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त्वे ध॒र्माण॑ आसते जु॒हूभि॑: सिञ्च॒तीरि॑व । कृ॒ष्णा रू॒पाण्यर्जु॑ना॒ वि वो॒ मदे॒ विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॑ धिषे॒ विव॑क्षसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tve dharmāṇa āsate juhūbhiḥ siñcatīr iva | kṛṣṇā rūpāṇy arjunā vi vo made viśvā adhi śriyo dhiṣe vivakṣase ||

पद पाठ

त्वे इति॑ । ध॒र्माणः॑ । आ॒स॒ते॒ । जु॒हूभिः॑ । सि॒ञ्च॒तीःऽइ॑व । कृ॒ष्णा । रू॒पाणि॑ । अर्जु॑ना । वि । वः॒ । मदे॑ । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । धि॒षे॒ । विव॑क्षसे ॥ १०.२१.३

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:21» मन्त्र:3 | अष्टक:7» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:3 | मण्डल:10» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वे) हे अग्रणायक परमात्मन् ! तेरे अन्दर या तेरे आश्रय में (धर्माणः-आसते) तेरे गुणों के धारक-उपासक विराजते हैं (जुहूभिः-सिञ्चतीः-इव) होम के चम्मच से जैसे घृत-धाराएँ सींची जाती हुई होमाग्नि में आश्रय लेती हैं, उसी भाँति (कृष्णा अर्जुना रूपाणि) कृष्ण धूममय श्वेत-शुभ्ररूपों को छोडती हुई होती हैं, वैसे (मदे) हर्ष के निमित्त (वः) तुझे (वि) विशिष्टरूप से वरण करते हैं (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे) सारी सम्पदाएँ तू धारण करता है (विवक्षसे) अतः तू महत्त्व को प्राप्त हुआ है ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के गुणों को धारण करनेवाले उसमें ऐसे विराजते हैं, जैसे होमाग्नि में आहुतियाँ भिन्न-भिन्न रूपों को छोड़ती-विराजती हुई आश्रय लेती हैं। ऐसे वे उपासक सारी सम्पदाओं को तेरे अन्दर प्राप्त करते हैं, तू उसका महान् देव है ॥३॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वे) हे अग्रणायक परमात्मन् ! त्वयि ‘सप्तम्यर्थे शे प्रत्ययः’ “सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छे……” [अष्टा० ७।१।३९] (धर्माणः-आसते) तव गुणानां धारकाः-उपासकाः-विराजन्ते (जुहूभिः सिञ्चतीः-इव) होमदर्विभिर्यथा सिञ्चन्त्यो घृतधाराः खलु होमाग्निमाश्रयन्ते तद्वत् (कृष्णा-अर्जुना रूपाणि) कृष्णानि धूममयानि श्वेतानि शुभ्राणि रूपाणि-उपसृजन्त्यो वृणवत्त्यः, तथा (मदे) हर्षनिमित्ते (वः) त्वाम् (वि) विशिष्टं वृणुयाम (विश्वाः श्रियः-अधि धिषे) सर्वाः सम्पदा अधिधारयसि (विवक्षसे) महत्त्वं प्राप्तोऽसि ॥३॥